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वो देखो शाम फिर से आ रही है / 'महताब' हैदर नक़वी

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वो देखो शाम फिर से आ रही है
मेरी आँखों पे बदली छा रही है

अभी तारीक़ हो जायेगी दुनिया
कि सूरज की सवारी आ रही है

उधर उस सम्त इक ख़िली मकाँ से
सदा-ए-साज़-ए-गिरिया1 आ रही है

कहीं इश्क़-ओ-हवस कुछ भी नहीं है
कोई सूरत मगर भरमा रही है

कहीं सोज़-ए-निहानी2 बेअसर है
कहीं गर्द-ए-मलाली छा रही है

कहा करते थे जिसको शाम-सी शाम
वही अब शाम-ए-ग़म कहला रही है

मगर कुछ देर की है शाम-ए-फ़ुरक़त3
विसाल-ए-यार की सब आ रही है

अभी महताब आयेगा सर-ए-बाम4
अभी उसकी किरन शरमा रही है

1-रुदन के वाद्ययन्त्र 2-अन्तर ताप 3-विरह की शाम 4-छत पर