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वो मुंतज़िर हैं हमारे तो हम किसी के हैं / रेहाना रूही

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वो मुंतज़िर हैं हमारे तो हम किसी के हैं
अलामतों में ये आसार ख़ुद-कुशी के हैं

पस-ए-मुराद बहुत ख़्वाब हैं निगाहों में
सुमंदरों में जज़ीरे ये रौशनी के हैं

मैं अपने आप को दुश्मन के सर्फ़ में दे दूँ
ये मशवरे तो मिरी जान वापसी के हैं

हुजूम-ए-अक्स है और आईना सिफ़त हूँ मैं
सो मेरे जितने भी दुख हैं वो आगही के हैं

किसी क़बा को मयस्सर है फ़ाख़ेरा होना
किसी लिबास में पैबन्द मुफ़लिसी के हैं

मैं उस से दुख के भी उस को दुआएँ देती हूँ
अजीब रंग मोहब्बत में दुश्मनी के हैं

मैं जब भी चाहूँ जभी उस से गुफ़्तुगू कर लूँ
मिरी ग़ज़ल पे ये एहसान शाइरी के हैं

जो शहर-ए-संग में शीशा-ए-मिज़ाज है ‘रूही’
वो ज़िम्मेदार ख़ुद अपनी शिकस्तगी के हैं