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व्यष्टि जीवन का अंधकार / अज्ञेय

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व्यष्टि-जीवन का अन्धकार!
इसी नयी भावना के व्यापकत्व में भी मैं अपने को भुला नहीं पाता, मेरी संज्ञा केवल उस संजीवन के एक अंश तक सीमित है जो मुझे प्राप्त हुआ है। अपनी इस क्षुद्र संज्ञा से मैं निर्बाधता नापता हूँ; और समझता हूँ कि उस से एकरूप हूँ। मैं यह नहीं समझ सकता कि मैं उस के एक अंश से ही पागल हूँ-उसके व्यापकत्व को समझ भी नहीं पाया।
पुराने जीवन की रूढि़ ने अभी तक मुझे नहीं छोड़ा- व्यष्टि-भाव अभी भी अज्ञात रूप से मुझे भुला देता है।

दिल्ली जेल, 31 अक्टूबर, 1932