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शब्द अक्सर तोड़ देते हैं / नवीन दवे मनावत

Kavita Kosh से
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कविता नहीं होती
शब्दों का खेल
क्योंकि थोपे गये अनसुलझे
शब्द अक्सर तोड़ देते है
उसके मर्म को

अगर तुमने शब्द गढे़
उसकी पीड़ा, खुशी, शृंगार,
या विरचित भाव के अनुसार
तो नहीं पनपेगी अंतर्मन की दूब

शब्द है कि ठोकते ताल है
निर्दोष, निर्बोध समय पर
और
आडंबर का पहन कर बाना
चिल्लाते है
कि हम शब्द है
अनुसरण करों हमारा

जबरदस्ती की मिशाल
और व्यवस्थिता का बाना
नहीं पहना सकते कविता को
जो फैकी और पढ़ी जाए
केवल प्रतिष्ठा और
भव्य तथाकथित हस्ताक्षरों के मध्य

कविता
शब्दों से केवल
आलोड़ित होती है
और
तत्पर रहती है शिल्प गढने को
जानना चाहती है मर्म को
तोड़ना चाहती है
आदमी को विध्वंश करने की युक्तियाँ

तो कविता क्या है?
कविता है भूख और
रोटी की तलाश
राह भटकते इंसान की राह
टूटे प्रेमी की आह!
कविता रात नहीं
रात के अनसुलझे असीम सपनें है
कविता मन की पीड़ा है
कविता जुड़ाव है
आदमी का
ब्रह्मांड का अहसास है