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शरद / मिख़अईल लेरमन्तफ़ / अनिल जनविजय

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पीत केसरिया हो चला है रंग पत्तियों का पेड़ों पर, 
तेज हवा में झूम रहीं वो, भँवर सा लगा रहीं चक्कर,
हालाँकि वन में सजे खड़े हैं, वैसे के वैसे फ़र के वृक्ष
हैरान हुए ऋतु की इस धज से उदास खड़े वे हरिहर ।

चट्टान की छाया में बैठा दिखता नहीं अब कोई किसान,
फूलों की क्यारी के बीच, अब करता नहीं कोई आराम,
हाँ, कभी-कभी दिख जाते हैं, इन खेतों के बीच हलवाहे
श्रम करने पर उतार रहे जो, दिन- दोपहर अपनी थकान ।

कुछ निडर वनपशु दिख जाते हैं, भाग रहे हैं इधर-उधर,
छिपने को बसेरा खोज रहे, सिहरे मौसम का देख कहर,
चाँद भी धुँधला गया है, ख़ूब झर - झर उतर रहा कोहरा,
रात चाँदनी सी चमके है, पर आभा उसकी है धूसर-धूसर ।

1828

मूल रूसी से अनुवाद : अनिल जनविजय

और अब यह कविता मूल रूसी भाषा में पढ़ें
         Михаил Лермонтов
                 Осень

Листья в поле пожелтели,
И кружатся и летят;
Лишь в бору поникши ели
Зелень мрачную хранят.

Под нависшею скалою
Уж не любит, меж цветов,
Пахарь отдыхать порою
От полуденных трудов.

Зверь, отважный, поневоле
Скрыться где-нибудь спешит.
Ночью месяц тускл, и поле
Сквозь туман лишь серебрит.

1828