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शहर से दूर भी लोगों का है डेरा जोगी / सुरेश चन्द्र शौक़

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शहर से दूर भी लोगों का है डेरा जोगी

तू बनाएगा कहाँ रैन—बसेरा जोगी


ख़ुद—परस्ती <ref>स्वयं को जानना</ref> का है अब्र <ref>बादल</ref>इतना घनेरा जोगी

चार जानिब<ref>चारों तरफ़</ref> अँधेरा ही अँधेरा जोगी


कौन है जिसके लिए जोगिया बाना पहना

हो गया किसके लिए हाल ये तेरा जोगी


जी तो करता है बहुत ख़ुद को तलाशूँ मैं भी

मुझको छोड़े तो मगर मोह का घेरा जोगी


कील डाले जो तअस्सुब<ref>धार्मिक कट्टरपन</ref> की विषैली नागिन

ढूँढकर ला तो कहीं से वो सपेरा जोगी


कितने तीरथ किए और कितने ही गंगा अशनान

इन उजालों में भी था घोर अँधेरा जोगी


राह तकता है जहाँ कोई अभी तक तेरी

उस गली का भी लगा भूले से फेरा जोगी


रौशनी के लिए क्या—क्या न किए मैंने जतन

दूर होता ही नहीं मन का अँधेरा जोगी


चार दिन काट के चल देंगे सभी सू-ए—अदम<ref>परलोक की ओर</ref>

मुस्तक़िल <ref>स्थाई</ref>कुछ भी यहाँ तेरा न मेरा जोगी


ज़ाहिरन<ref>प्रत्यक्ष रूप में</ref> ‘शौक़’ मैं जोगी नज़र आऊँ न मगर

तन भी जोगी है मिरा मन भी है मेरा जोगी



शब्दार्थ
<references/>