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शांति / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

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प्रबल जिससे हों दानव-वृंद,
अबल पर हो बहु अत्याचार;
कुसुम-कोमल उर होवे बिध्द,
धारा पर बहे रुधिर की धार।
सूत्र मानवता का हो छिन्न,
सदयता का हो भग्न कपाल;
लुटे सज्जनता का सर्वस्व,
छिने सहृदयता-संचित माल।
हरण हो मानवीय अधिकार,
लोक-बल जिससे होवे लुप्त;
आत्म-गौरव का हो संहार,
सकल जातीय भाव हो सुप्त।
दलित हो भव-जन-पूजित भाव,
अनादृत हों अवनी-अवतंस;
जाति-सुख-कल्प-वृक्ष हो दग्ध,
लोक-हित-नंदन-वन हो ध्वंस।
पाप का होवे तांडव नृत्य,
घरों में हो पैशाचिक कांड;
हो दनुज-अट्टहास की वृध्दि,
विलोड़ित हो जिससे ब्रह्मांड।
है परम दुर्बल चित की वृत्ति,
भ्रांत मन की है भारी भ्रांति;
है अवनितल अशांति की मूल,
शांति वह कभी नहीं है शांति।