भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शान्ति चाहिये जग को / जनार्दन राय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

शान्ति चाहिये जग को लेकिन,
जग ही क्रान्ति मचाता है।
जग को ही निर्माण चाहिये,
जग ही प्रलय मचाता है।
जब तक यह व्यापार जगत का,
जग ही रोक न पायेगा।
शान्ति चाहने वाला तब तक,
शान्ति नहीं पा पायेगा।

जली आग जगती में, सब हैं
देख रहे निज आँखों से।
बुझे आग जगती की सब हैं,
माँग रहे जल लाखों से।
आग बुझाने वाला खुद ही,
यदि न नीर दे पायेगा।
शान्ति चाहने वाला तब तक,
शान्ति नहीं पा पायेगा।

संसृति सारी शान्ति खोजती,
किन्तु स्वयं लड़ जाती है।
अपनी स्वार्थ-पिपासा हित,
संघर्ष आग सुलगाती है।
जब तक आग लगाने वाला,
स्वयं नहीं पछतायेगा।
शान्ति चाहने वाला तब तक,
शान्ति नहीं पा पायेगा।

मानव का है डाही मानव,
मानव-मानव लड़ता है।
मानव के ही कारण मानव,
धुल-धुल करके लड़ता है।
जब तक मनुज मनुज के कारण
स्नेह नहीं दे पायेगा।
शान्ति चाहने वाला तब तक,
शान्ति नहीं पा पायेगा।

सबल अबल पर हाथ उठाते,
तनिक नहीं शर्माता है।
छीन उसी की धरती-दौलत,
अपन कर गर्माता है।
जब तक ऐसा अत्याचारी-
न्याय नहीं दे पायेगा।
शान्ति चाहने वाला तब तक,
शान्ति नहीं पा पायेगा।

शान्ति चाहने वाला तब तक,
स्वयं शान्ति दफनाता है।
युद्ध रोकने वाला ही जब,
स्वयं शमर ठनवाता है।
जब तक ऐसा भक्षक-रक्षक,
नीति नहीं अपनायेगा।
शान्ति चाहने वाला तब तक,
शान्ति नहीं पा पायेगा।

-दिघवारा,
11.9.1967 ई.