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शाप फिर कुणाल का फला / योगेन्द्र दत्त शर्मा

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खंजन तेजाब में घुले
आंख हुईं ज्योति-वंचिता
फिर यह कैसी विडंबना
चुप रहें अशोक-से पिता!

शांति, अहिंसा गुंजारती
उड़ी बहुत धर्म कीध्वजा
शाप फिर कुणाल का फला
नेत्रहीन हो गई प्रजा

राजमुहर हाथ में लिये
फिर चहकी तिष्यरक्षिता!

आवाजें सूलियां चढ़ीं
न्याय को गुहारते हुए
गुजर गईं सदियां, विष को
कंठ में उतारते हुए

टूटी मेहराब के तले
दहती आचारसंहिता!

धृतराष्ट्रों की सभा जुड़ी
वंचना प्रमाण हो गई
गांधारी दुरभिसंधि फिर
सिद्ध राम-बाण हो गई

सिसक रही अंधे युग में
अभिशापित मूल्यधर्मिता!