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शायद तुम सच ही कहते थे / अज्ञेय

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 शायद तुम सच ही कहते थे-वह थी असली प्रेम-परीक्षा!
मेरे गोपनतम अन्तर के रक्त-कणों से जीवन-दीक्षा!
पीड़ा थी वह, थी जघन्य भी, तुम थे उस के निर्दय दाता!
तब क्यों मन आहत होकर भी तुम पर रोष नहीं कर पाता?

तर्क सुझाता घृणा करूँ, पर यही भाव रहता है घेरे-
तुम इस नयी सृष्टि के स्रष्टा क्रूर, क्रूर, पर प्रणयी मेरे!

लाहौर, अप्रैल, 1935