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शुहदा-ए-जंगे आज़ादी 1857 के नाम / फ़राज़

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शुहदा-ए-जंगे आज़ादी 1857 के नाम<ref>1857 की क्रांति में वीरगति को प्राप्त होने वालों के नाम</ref>

तुमने जिस दिन के लिए अपने जिगर चाक किए
सौ बरस बाद सही दिन तो वो आया आख़िर
तुमने जिस दश्त-ए-तमन्ना<ref>इच्छा के उद्यान</ref> को लहू से सींचा
हमने उसको गुलो-गुलज़ार<ref>हरा-भरा</ref> बनाया आख़िर
नस्ल-दर-नस्ल<ref>पीढ़ी-दर-पीढ़ी</ref> रही जहदे-मुसलसल<ref>निरंतर प्रयत्न</ref> की तड़प
एक इक बूँद ने तूफ़ान उठाया आख़िर
तुमने इक ज़र्ब<ref>चोट</ref> लगाई थी हिसारे-शब<ref>काला घेरा</ref> पर
हमने हर ज़ुल्म<ref>अत्याचार</ref> की दीवार को ढाया आख़िर

वक़्त तारीक ख़राबों <ref>अँधेरी बुराइयों</ref>का वो अफ़्रीत<ref>देव, जिन्न</ref> है जो
हर घड़ी ताज़ा चराग़ों<ref>दीयों</ref> का लहू पीता है
ज़ुल्फ़े-आज़ादी<ref>स्वाधीनता की लट</ref> के हर तार से दस्ते-अय्याम<ref>समय के हाथ</ref>
हुर्रियतकेश <ref>स्वतन्त्रता प्रेमी</ref>जवानों के क़फ़नसीता है
तुमसे जिस दौरे-अलमनाक <ref>दु:ख या रंज के समय </ref> का आग़ाज़<ref>प्रारम्भ</ref> हुआ
हम पे वो अहदे-सितम<ref>त्याचार का समय</ref> एक सदी बीता है
तुमने जो जंग लड़ी नंगे-वतन <ref>जन्म भूमि की लाज</ref> की ख़ातिर<ref>लिए,वास्ते</ref>
माना उस जंग में तुम हारे अदू<ref>शत्रु</ref> जीता है

लेकिन ऐ जज़्बे-मुक़द्दस<ref>पवित्र भावना</ref> के शहीदाने-अज़ीम<ref>महान शहीदो</ref>
कल की हार अपने लिए जीत की तम्हीद<ref>भूमिका</ref> बनी
हम सलीबों पे चढ़े ज़िन्दा गड़े फिर भी बढ़े
वादी-ए-मर्ग <ref>मृत्यु की घाटी</ref> भी मंज़िल-गहे-उम्मीद<ref>आशा की चरम सीमा</ref> बनी
हाथ कटते रहे पर मशअलें <ref>मशालें</ref> ताबिन्दा<ref>स्वीकार</ref> रहीं
रस्म जो तुमसे चली बाइसे-तक़्लीद <ref>स्वीकार करने कारण</ref> बनी
शब के सफ़्फ़ाफ़<ref>अत्याचारी</ref>ख़ुदाओं को ख़बर हो कि न हो
जो किरन क़त्ल हुई शोला-ए-ख़ुर्शीद<ref>सूर्य का टुकड़ा</ref> बनी

शब्दार्थ
<references/>