भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शोभा पाराशर / भीगी पलकें / ईश्वरदत्त अंजुम

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कविता भावों का मूर्त रूप है। कवि भाव सागर में गहरे उतर कर अनुभूत सत्य को शब्दों का कलेवर देता है तो वही भावनाएं काव्य के देदीप्यान मोती बन जाती हैं।। वस्तुतः कविता अथवा शायरी एक ऐसी विधा है जिस में अनुभूति और अभिव्यक्ति, कोमलता और परखरता का मणिकांचन संयोग होता है। यथार्थ के धरातल पर पांव रखते हुए भी कवि कल्पनाओं के आकाश में अपने परों को उड़ान भरने का भरपूर अवसर दे पाता है। इसी दिशा में श्री ईश्वर दत्त 'अंजुम' का प्रस्तुत संकलन एक ऐसा सुप्रयास है जिस में भावुकता के लम्हे चिरंजीवी हो गये हैं। संप्रेषणीयता को दृढ़ता से थामे हुए सटीक शब्दों में अपनी बात को बेनक़ाब और बेबाक़ हो कर कह देना शायर की मौलिकता है। जीवन के रंगों से सजी इस शायरी में सहजता है, सजगता है और सौन्दर्य है। अस्तित्व की पहचान की तड़प है व्यक्ति है समाज है, और राष्ट्र है। अंजुम के दिल में प्रेम का अथाह सागर हिलोरें ले रहा है। ये प्यार प्राणीमात्र के लिए भी है और आध्यात्मिक भी...

• उस के जलवे को देख ले दिल में
 ऐसी तो हर नज़र नहीं होती
 वो तो बैठा है छुप के हर दिल में
 दिल को लेकिन ख़बर नहीं होती


लेकिन प्यार में व्यापार का अनुभव भी अजीब ऐ कसक बन कर उभरा और शैली भी व्यंग्यात्मक हो गई...

• हो सके तो प्यार को भी कारोबारी कीजिये
 जिस जगह से जो मिले उस को खुशी से लीजिये
 मिलने जुलने का बनाएं सिलसिला लोगों से आप
 पूछ लें उन का पता, अपना पता मत दीजिये।


शायर भले ही व्यंगबाण चला ले लेकिन किसी तरह का रक्तपात वो नहीं चाहता इसी लिए दिल टूटने पर भी कोई शिकवा नहीं, कहीं वफ़ा का इज़हार नहीं, प्रेम का इश्तिहार नही...

• जिया को चाहा है दिलो-जान से अब तक तू ने
 दिल वो तोड़े तो चरागों को बुझा कर रोना

ज़माने के बदलते दौर में उदास शायर निराश नहीं है और आशावादिता का स्वर नई चेतना भरता है...

• कैसी भी हप खजां मगर रुकती नहीं बहार
  सिहने-चमन में फूल खिलाती है ज़िन्दगी
  'अंजुम' ख़ुदा के फ़ैज़ से मायूस तो न हो
  जामे कई बदल के फिर आती है ज़िन्दगी

नफ़रत की आग बुझा कर शांति की स्थापना की कोशिश और भड़काऊ प्रवृत्ति वाले लोगों को सचेत करने में शायर ने कोई कसर नहीं छोड़ी...

नफ़रत की आग पहले ही भड़की है शहर में
कोई ख़ुदा के वासिते इसको हवा न दे


ज़िन्दगी के झंझावातों से जूझ कर अपने को छुपा के जीने वालों का ही दुनिया स्वागत करती है, क्यों कि जीना भी एक कला है। इसे शायर बख़ूबी पहचानता है...

• ज़िन्दगी में जो मुस्कुराये गा
 वो ज़माने को रास आये गा
 सख़्त दुश्वारियां के आलम में
 अज़्मे-पुख्ता ही काम आये गा।
 

सम्बन्धों में बढ़ती स्वार्थ और फ़रेब से वाकिफ़ शायर , कभी कभी प्यार पर भी विराम लगाने को बेबस सा हुआ नज़र आता है..

• पायदारी कहां है रिश्तों में
 प्यार में भी छुपी है अय्यारी।

अंजुम का ख़ुदा पर अटूट विश्वास अभिभूत कर जाता है और ये शेर देखिये जिस में अधिकार और विश्वास का योग अनोखी सामर्थ्य दिखा रहा है...

- है मुझे अपने ख़ुदा पर ही भरोसा 'अंजुम'
 जब मैं गिरता हूँ तो वो आ के उठाता है मुझे

यथार्थवादी दृष्टि क्व धनी अंजुम जहां जीवन की नश्वरता को "काम सारा मुसाफ़िराना" कह कर स्प्ष्ट करते हैं, वहीं पद प्रतिष्ठा और ऊंचाइयां छूने वलोंबको सचेत करना भी नहीं भूलते...

-जब क़दम आसमान में रखना
 कुछ तवाजुन उड़ान में रखना


आधुनिकता की होड़ और पैसे की दौड़ ने संयुक्त परिवार तो तोड़े ही हैं, संस्कारों की भी बलि दे दी है। आज भौतिक सुविधाओं के पीछे भागते भागते मां बाप भी कहीं बहुत पीछे छूट गये हैं, इसी दर्द को बेहद संवेदनशीन हो कर शायर ने क्या ख़ूब कहा है...

बुढापा कहता है बेटे के घर में जा के रहो
मगर बड़े ही मज़े में हम अपने घर में हैं


घनिष्ठ सम्बन्धों को भी पैसे की आंच ने पिघला कर समाप्त कर दिया है। ऐसे बुनियादी फ़रेब का असर शायरी में यहां वहां बिख़रा है। शायर चाह कर भी उस एहसास से मुक्त नहीं हो पाता...

निकले हैं आज फेर के मुंह बेरुखी के साथ
वो जिन की जिंदगी का मुक़द्दर रहे हैं हम

आहत मन की पीड़ा की ऊंचाई और वेदनानुभूति इस शेर में देखने योग्य है, जिस में आंखें भीगती नहीं पर भोगती है विरह के दर्द को...

दिल ही रोता है आंख के बदले
आंख अब अपनी तर नहीं होती

ईश्वरीय अनुकम्पा पर दृढ़ विश्वास रखते हुए शायर एक शर्त भी रखता है और वो है सच्ची निष्ठा और समर्पण...

जो झुका देता है अज़-राहे-अक़ीदत सर को
अपनी अज़मत का वो ऐजाज़ दिखा देता है।


शायर के दिल में 'प्रेम' एक उच्च आसन पर आरूढ़ है। चाहे रूहानी प्रेम हो या दुनियावी या प्रेम हो अपने वतन से उस के निगहबानों से...

मिलजुल के कर रहे हैं हिफाज़त वतन की हम
अफ़ज़ल मगर सभी से तो फौजी जवान है

देश के जंगल, पहाड़, खेत और दरियाओं की प्राकृतिक छटा दिखाता हुआ शायर स्वदेशाभिमान में इतना शक्तिशाली हो जाता है कि उस में ललकारने की भी सामर्थ्य मुखरित हो उठी है...

है पाक इरादा तो पाकीज़ा बना दिल को
क्यों बुगजो-कदूरत को तू ने अपनाया है
एटम की लड़ाई में तू जीत न पायेगा
पहले भी तुझे हम ने हर बार हराया है।

संकलन का प्रत्येक शेर बहुत वज़नदार है। आस्था, प्रेम, विश्वास की त्रिधाराओं ने इसे बहुत समृद्ध के दिया है। अपने व्यक्तित्व और अस्तिव की साख रखते हुए शायर विश्वास दिलाता है...

-वफ़ा की कसौटी पे उतरेंगे पूरे
हमें भी कभी आज़मा कर तो देखो
 सितारों को कदमों में रख देंगे ला कर
 कभी हम को अपना बना कर तो देखो


प्रेरणा और संदेश के अभाव में 'साहित्य' मात्र नकली फूलों का गुच्छा भर रह जाता है। यथार्थ और आदर्श का वास्तविक स्वरूप स्प्ष्ट करते हुए
जीवन शैली के प्रति नवीन संचेतना आवश्यक संदेश संकेत भी दिये हैं। वर्तमान परिपेक्ष्य में उदासी, मलिनता को हटा कर जागरूकता जीवन की प्रेरणा देती यह पंक्तियाँ सचमुच नया जोश भरती है...

ग़मे-दुनिया न रौंद दे तुझ को
ग़म उठाने का हौसला रखना
शाम से जीना, शान से मरना
ज़िन्दगी में कोई अदा रखना

निसंदेह शायरी के प्रेमियों और जिज्ञासुओं को यह संकलन भरपूर खुराक देगा। आदरणीय राजेन्द्र नाथ रहबर जी की प्रेरणा और दिशानिर्देश पर आज पठानकोट का प्रत्येक शायर अपना मौलिक अधिकार समझता है तो 'अंजुम' जी के भाव सागर के अन्य अनेक मोतियों का इंतज़ार भविष्य में भी रहेगा।