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संगिनी / शंख घोष / प्रयाग शुक्ल

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हाथ पर रखना हाथ सहज नहीं
सारा जीवन देना साथ सहज नहीं
बात लगती यह सहज, जानता न लेकिन कौन
सहज बात होती उतनी सहज नहीं।

पाँवों के भीतर चक्कर मेरे, चक्कर है
उनके नीचे भी, कैसा नशा है यह, इसके तो सभी ऋणी।
झिलमिल-सी दुपहर में भी रहती ही है साथ
गंगा तीर वाली चंडालिनी।

वही सनातन अभ्रुहीना, आसहीना तुम ही तो हो
संगिनी मेरे हर समय की, है ना?
तुम मुझको सुख दोगी यह तो सहज नहीं
तुम मुझको दुःख दोगी यह भी सहज नहीं।

मूल बंगला से अनुवाद : प्रयाग शुक्ल
(हिन्दी में प्रकाशित काव्य-संग्रह “मेघ जैसा मनुष्य" में संकलित)