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संदेहों की दीवारें / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

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संदेहों की दीवारे कर
देना खड़ी नहीं मुश्किल है
किन्तु ढहा पाना फिर उनको
काम बहुत आसान नहीं है।

हुई गलतफहमी कोई भी
नींव वहीं से पड़ जाती है;
हुई तुरंत न दूर अगर वह
गहरी ही होती जाती है।
है संवेदनशील आदमी
मात्र अस्थि-विज्ञान नहीं है।1।

होते हैं विश्वास आपसी
कच्चे धागों से भी कच्चे;
होते सहज-सरल-निर्मलतम
ज्यों सपनों में हँसते बच्चे।
टूट, बिसुर जाते वे क्षण में
पर्वत या चट्टान नहीं हैं।2।

उलटी उँगली पड़ी कि मानव
की वीणा झंकृत हो जाती;
हृदय-पटल पर विषमस्वरों की
ध्वनि-लहरें, अंकित कर जाती।
मनु का पुत्र अमर स्वर-लिपि में
सामवेद का गान नहीं है।3।

शक की दीवारों की नीचे
जब तक खुदती ही जाएँगी,
संदेहों की दीवारें भी
तब तक उठती ही जाएँगी,
जब तक तन-मन-धन से बनता
पाक-साफ इंसान नहीं है।4।

12.1.91