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संप्रश्न / रामइकबाल सिंह 'राकेश'

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छत को लेकर आसमान से
तंग घरोंदा एक बनाया;
टूटी रस्सी टेक-टेककर
घुने बाँस से ठाठ ठठाया।

खुली हवा आती न यहाँ है
गर्चे खुले टाट के परदे;
खिली चाँदनी, घोर अँधेरा
कौन कहो ज्योतिर्मय कर दे?

रुद्ध श्वास से आह निकलकर
पलक अश्रु में भिगो फफकती;
मँझी हुई फुलिया दीए की
ज्यों दुप-दुप कर राख उगलती।

साहस थाम समेटो डैने
निकलो तो प्रकाश फैला है;
भीतर घुट-घुट तोड़ रहा दम
धुआँ तापता क्यों मैला है?

स्वयं बन्द जो परकोटे में
देखोगे तुम बन्द वही है;
तुम तो स्वयं सहारा अपना
कुछ दुनिया में बन्द नहीं है।

गाँठों के घेरे मत अपने
चारों ओर कसो-कसने दो;
लाद-लादकर पोट बँधाकर
आँख मूँदकर मत लदने दो।

दर्शन, पन्थ, धर्म के पीछे
डरकर मत निज को छिपने दो;
बन्द बुद्धि पीली होती है
उसे खड्ड में मत गिरने दो।

सूना गाँव, देश सब सूना
जल, थल, रैन-बसेरा सूरा;
ऊपर नीला आसमान भी
सूना बिलकुल सूना-सूना।

निराकार, निर्लेप उसी-सा
मैं भी सूना, तू भी सूना;
सूना विजन पन्थ अनजाना
बिन साथी का सूना-सूना।

घाट भूलकर अवघट जाना
जीवन पंकिल निर्मल करना;
दाह मिटा टिसते घावों की
मन की रीति तूम्बी भरना।

जाने कब से घहर रही है
दुख की बदली काली-काली?
सुख की बिजली लुक-छुप जाती
क्षण में बुन प्रकाश की जाली।

गा दुख की दुनिया के वासी!
गा सुख की दुनिया के वासी!
दुख-सुख की नित गरल-सुधा पी
सुख-दुख की दुनिया के वासी!

क्या जाने सुख का रहस्य वह
दुख का स्वाद न जिसने जाना?
क्या जाने दुख का रहस्य वह
सुख का स्वाद न जिसने जाना?

एक कड़ाहा एक तरफ ज्यों
धँसा हुआ भीतर होता है;
मगर दूसरी तरफ उभरता
उठा हुआ ऊपर होता है।

‘धँसा हुआ-पन’ अगर मिटा दो
‘उठा हुआ-पन’ मिट जाएगा;
‘उठा हुआ-पन’ अगर मिटाओ
‘धँसा हुआ-पन’ मिट जाएगा।

और, एक के मिट जाने से
दोनों का अस्तित्व न रहता;
पर, दोनों के मिट जाने से
कहो कड़ाहापन क्या रहता?

उसी तरह दुख अगर लुप्त हो
सुख का भाग नष्ट हो जाता;
सुख का भाग लुप्त पर दो तो
दुख का भाग नष्ट हो जाता।

सुख-दुख दोनों अगर नष्ट हों
सुख-दुखमय जग नहीं रहेगा?
चेतन कोई नहीं, भला जो
सुख-दुख का उपभोग करेगा?

उल्टा-पुलटा यह गोलक है
इन्द्रजाल अथवा प्रपंच है;
घूर-घूर देखो न, कहो तो
दृश्यमान क्या रंगमंच है?

मूल्य द्वित्व का तीखा काँटा
रीढ़ चुभाते हो क्यों अपनी?
स्वत्व तुम्हारा छलनी होता?
‘जैसी करनी वैसी भरनी!’’

काँटा जब तक गड़ा हुआ है
तब तक मन को चैन कहाँ है?
दिल के काँटे बीन निकलो
गड़ा हुआ कुछ नहीं वहाँ है।

(रचना-काल: दिसम्बर, 1942। ‘सरस्वती’ जनवरी, 1943 में प्रकाशित।)