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संवेदन की नदियाँ सूखी / एक बूँद हम / मनोज जैन 'मधुर'

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सबकी अपनी-अपनी
देखों राम कहानी है

यादों का हम पानी देते
घाव हरा रखने
गैरों को भी गले लगाते
निन्दा रस चखने
सीख कहाँ मानी है हमने
की मनमानी है

पर्वत जैसा स्वप्न देखतीं
छोटी-सी ऑंखें
वश में दुनिया करनी चाही
फैला कर पाँखें
बार-बार मन करता रहता
यह नादानी है

चिन्तन में हम बुनते रहते
मकड़ी-सा जाला
सिर्फ दिखावा हुई हाथ में
यह कंठी माला
संवेदन की नदिया सूखी
गुमसुम पानी है

नई हवा में भूल रहे हम
मामा, मौसी को
मरघट भी हम कब पहुंचाते
मरे पड़ोसी को
बस कह देते यह दुनिया तो
आनी जानी है

सबकी अपनी-अपनी
देखो राम कहानी है