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सच कहूँ संकल्प हो तुम / धीरज श्रीवास्तव

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सच कहूँ संकल्प हो तुम और मेरी साधना।
प्रीति ने लेकिन ठगा यूँ खो गई संभावना।

हाथ बाँधे मैं खड़ा हूँ
आज भी उस मोड़ पर !
एक दिन मुझको जहाँ पर
तुम गये थे छोड़ कर !

आह साँसों से निकलकर दे रही है यातना ।
सच कहूँ संकल्प हो तुम और मेरी साधना ।

है नयन में अश्रु धारा
सिन्धु जैसी पीर है !
क्या करें सुधियाँ भला अब
जब यही तकदीर है !

शेष तुमको चाहकर फिर मीत क्या है चाहना ?
सच कहूँ संकल्प हो तुम और मेरी साधना ।

जिन्दगी है ज्यों मरुस्थल
हर कदम पर प्यास है !
दौड़कर यह मन हिरन सा
ढूँढता विश्वास है !

कब मिली पर झील मीठी रेत से है सामना ।
सच कहूँ संकल्प हो तुम और मेरी साधना ।