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सतिंदर नूर के लिए / हरप्रीत कौर

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एक

मैं तुम्हारी कविता से शाइस्ता
लाहौर में मिली थी न...?
202 में ठहरी थी
मैं पाकिस्तान से हूँ
याद है न ?

मैं राजी खुशी हूँ
पर एक बात बताओ
‘तुम्हारे देश में अपनों को याद करने का
रिवाज भी है कि नहीं ?
कब से इंतजार में हूँ कि
तुम खत लिखो और कहो
‘ठीक तो हो शाइस्ता
लंबे समय से आ ही नहीं रही इधर
मेरी कविता में
मैं हूँ कि लगातार अकेला होता जा रहा हूँ
आओ शाइस्ता
आओ और मुझसे बातें करो’
 
पर तुम क्यों लिखने लगे भला कोई खत
तुम्हारे देस में थोड़े ही रहती हूँ मैं
तुम्हारे देस के रिवाज तो मैं भी जानती हूँ
पाकिस्तान से हूँ न ....

दो

तुम्हारी कविता से निकल कर
शाइस्ता आई है
आज सबेरे जब तुम्हें
विदाई की रस्म के लिए
नहलाया जा रहा था
 
नाराज है शाइस्ता
कह रही है
मुझे बताया तक नहीं
न कोई खबर, न चिट्ठी
और तो और याद में
एक हिचकी तक नहीं
मुझे नहीं मिलना
इतना चुप चुप भी कोई जाता है भला
 
तीन

देखो
मेरे पास तुम्हारा पता है
जिस पर मुझे अब कोई
खत नही लिखना
राजी-खुशी नहीं पूछना
याद है एक बार
तुमने खाली ही डाल दिया था खत
और कहा था
‘इस खत के अक्षर समझती हो शाइस्ता’
जो इसमें लिखा है न उसे जानने में सदियाँ लग गईं’
तुमने उस खत में क्या लिखा था?
मैं आज तक पढ़ नहीं पाई
सच कहूँ
तुम्हारी मुहब्बत की नज्मों का अनुवाद करती मैं
उस कागज को उलट-पुलट करती रही
तुम आओगे तो हम मिल कर
इस खत का अनुवाद करेंगे
तुम्हारी
शाइस्ता