भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सब ख़ामोश हैं / बृजेश नीरज

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सब ख़ामोश हैं
चुपचाप सहते हैं सब
सब कुछ

बारिश में भीगती रही चिड़िया
भीग गए पंख
स्थगित रही उड़ान
बह गया घोंसला

सर्दियों में काँपती रही पत्तियाँ
ठिठुरते रहे फूल
पाला खा गया कलियों, कोंपलों को
धुन्ध में गुम हो गया सारा हरापन

धीरे-धीरे गर्म होते रहे दिन
तपती रहीं रातें
चुपचाप पिघलती रही सड़क
बहता, सूखता रहा पसीना
बढ़ती रही गन्ध
लेकिन छाँव की आस में दीवारें चुप हैं

मौसम लगातार बदल रहा है
पिघल रही है शिखरों पर जमा बर्फ
सूख रही हैं नदियाँ
बढ़ रही है रेत
बंजर होती ज़मीन

विचार भटक गए राह
सन्दर्भ पीछे छूट गए कहीं
हाथ से रेत की तरह फिसलते प्रसंग
बौने हो गए अर्थ
लम्बे होते शब्दों के साए
टुकड़ों में बँटी धरती पर
झण्डे के रंगानुसार
गढ़ ली गईं नयी परिभाषाएँ

माहौल बदल रहा है
भूख बढ़ रही है
लेकिन सब ख़ामोश हैं

भारी हो गया है ख़ामोशी का यह बोझ
बोलना जरूरी है अब
कुछ बोलो
समय आ गया है
हवा बहो !