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समर्पण / देविंदर कौर

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वह बहुत कुछ कह सकती थी
शायर को खोजते-खोजते
शायरी को लिखते-लिखते
पर वह कुछ नहीं उच्चारती...

वे उससे पूछते हैं
तेरी सोच
तेरा मिज़ाज कहाँ है ?
वह बताती है-
वह गँवा आई है
अपने आप की तलाश में

शायर को
खोजते-खोजते
शायरी को
लिखते-लिखते
अपने आप को तलाशते
वह बेगानी हो गई एक दिन
और
शायरी के देश में से
पता नहीं किस वक़्त
चल पड़ी
बच्चों के देश
फूलों, पत्तियों के देश
जहाँ फूलों जैसी हँसी
मासूम आँखों में से
उड़ती फाख़्ताएँ
उससे मिलने आईं
और वह हो गई
सारी की सारी
उन फाख़्ताओं के हवाले