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सर्द मौसम की सुबह में, धूप थोडी़ गुनगुनी सी / प्रदीप कुमार 'दीप'

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सर्द मौसम की सुबह में, धूप थोडी़ गुनगुनी सी,
और तेरे नर्म हाथों की छुअन कैसे भुलाऊँ! !

गुदगुदाते वे लतीफे, जो कभी तूने कहे थे!
भोर में मंदिर के पीछे, दौड़ने जाते हुए तब!
नाम पहली बार लेकर, प्रेम को अभिव्यक्त करके!
लाज से चेहरा हुआ वह सुर्ख सकुचाते हुए तब!

भूल भी जाऊँ ये सब कुछ, तो बता तेरे लबों से!
 आज भी उस प्रेम रस का आचमन कैसे भुलाऊँ! !

रूठना, फिर मान जाना, मानकर फिर रूठ जाना!
रूठकर भी राह तकना, अंत में फिर फोन करना!
और फिर अधिकार के सँग, बोलना आकर मिलो घर,
घर पहुँचते ही चहकना, जोर से बाहों में भरना!

भूल भी जाऊँ मैं शायद, पर मुझे इतना बता तू!
लौटने पर वे तेरे छलके नयन कैसे भुलाऊँ! !

डायरी में है सुरक्षित फूल जो तूने दिया था!
फरबरी के दूसरे सप्ताह में मुझको वहाँ पर!
पत्र पहला प्रेम का वह जो कभी तूने लिखा था,
था लिखा जिसमें है लिखना नाम हमको आसमाँ पर! !

डायरी खत फाड़ भी दूं, पर मुझे इतना बता बस,
साथ दूँ मैं सात जन्मों तक, वचन कैसे भुलाऊँ! !