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सहना / कात्यायनी

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रोज़ कहते हैं —
'अब और नहीं सहा जाता '
और सहते हैं।

जब सबकुछ
नहीं सहा जाएगा
तो कुछ नहीं कहेंगे।
जो ज़रूरी होगा , करेंगे।
 
सहने को तो
बहुत कुछ सहा जा सकता है।
 
ज़रूरत है कि
यह बताया जाए कि
मनुष्‍यता की रक्षा के‍ लिए
कहना नहीं सहना तुरन्‍त बन्‍द कर देना होगा।

मार्च , 1986