भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सहरा से जंगल में आकर छाँव में घुलती जाए धूप / ज़ाहिद अबरोल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सहरा से जंगल में आकर छाँव में घुलती जाए धूप
अपनी हद से आगे बढ़ कर अपना आप गँवाए धूप

दिन भर तो घर के आँगन में सपने बुनती रहती है
बैठ के साँझ की डोली में फिर देस पिया के जाए धूप

जो डसता है अक्सर उसको दूध पिलाया जाता है
कैसी बेहिस<ref>अनुभूति शून्य, निस्पृह, चेतना शून्य</ref> दुनिया है यह छाँव के ही गुन गाए धूप

तेरे शह्र में अबके रंगीं चश्मा पहन के आए हम
दिल डरता है फिर न कहीं इन आँखों को डस जाए धूप

रोज़ तुम्हारी याद का सूरज ख़ून के आँसू रोता है
रोज़ किसी शब<ref>रात</ref> की गदराई बाहों में खो जाए धूप

जिन के ज़िह्न<ref>मस्तिष्क</ref>मुक़्य्यद<ref>क़ैद</ref> हैं और दिल के सब दरवाज़े बन्द
‘ज़ाहिद’ उन तारीक<ref>अँधेरे</ref> घरों तक कोई तो पहुँचाए धूप

शब्दार्थ
<references/>