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साँझ-10 / जगदीश गुप्त

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ऊषा के स्िमत-िइंिगत की,
गति से हिल उठीं हिलोरें।
किरनों के अनुशासन में,
सन गई जलद की कोरें।।१३६।।

मेरे प्रसुप्त पौरूष में,
तुम प्रकृति बने मुसकाये।
जग उठा स्नेह, सपनों से,
मैंने दृग-द्वार सजाये।।१३७।।

कुछ सूख चली आँखों को,
आँसू अथाह दे जाता ।
संदेश स्िनग्ध सुमनों का,
जब सुरिभवाह दे जाता।।१३८।।

वनमाली ! इन्हें न छेड़ें,
देखो समीर के झोंके।
ये सुमन नहीं हैं, मन हैं,
अनबोली लतिकाआें के।।१३९।।

पायें तो कर पल्लव से,
सबके सब कुसुम छिपालें।
उल्लास हृदय का सारा,
कैसे कह डालें डालें।।१४०।।

सब रूप-राशी संस्कृति की,
अलकावलियों में मँूदी।
डालो ने अपनी वेणी,
मधु-मंजरियों से गँूदी।।१४र्१।।

कुसुमों की निष्ठुरता से,
सिहरन है विश्वासों मेंं।
यह पवन नहीं है, गति है,
उपवन के निश्वासों में।।१४२।।

सौरभ-स्वर में कहती सी,
जैसे कुछ अपने जी की।
नूपुर सी बज उठती है,
प्रत्येक कली जुही की।।१४३।।

पिरमल की विमल-विभा से,
निस्पंद हो रहा नभ है।
इतने ससीम सुमनों में,
कितना असीम सौरभ है।।१४४।।

किलयों की पलकें डोलीं,
झुक गई लजीली डाली।
छिव-तिन्दर्ल तरूणाई में,
हो गई सफल शेफाली।।१४५।।

इसके झोकांे से उलझें,
उसकी साँसों के श्रमकण ।
तुम मुझसे मिलीं, विसुध हो,
मिलते ज्यों सुरिभ-समीरण।।१४६।।

कब से गत-िगहन विजन में,
फिरती थी मारी-मारी।
रख सिर समीर के उर पर,
सो रही सुरिभ बेचारी।।१४७।।

गविर्त हो सुरिभ न कैसे,
अपने सौभाग्य प्रचुर पर।
निखरी प्रसून के उर पर,
बिखरी समीर के उर पर।।१४८।।

धीरे से पल्लव हिलता,
धीरे से हिमकण ढलते।
धीरे से हृदय मचलता,
धीरे से ?ाु निकलते।।१४९।।

धीरे से हो जाता है,
सारा जीवन-घट रीता।
धीरे से मुरझा जाती,
तरूणाई नव-पिरणीता।।१५०।।