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साँझ-5 / जगदीश गुप्त

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करूणा की गहरी धारा,
अभिलाषाआें की आँधी।
मैंने पलकों में रोकी,
मैंने सासों से बाँधी।।६१।।

कोमलता बनी कहानी,
मैं निष्ठुरता से हारा।
किन शैलों से टकराई,
मेरे जीवन की धारा।।६२।।

कर गया कौन नयनों से,
जल-फूलों की बौछारें।
बिछ गई मौन हो मग में,
मेरे मन की मनुहारें।।६३।।

यह कौन हृदय में आकर,
कोमलता को मलता है।
छल छल छल छलक-छलक कर,
नयनों से बह चलाता है।।६४।।

हो गया एक ही पल में,
अवसान रम्य जीवन का।
किससे टकराकर टूटा,
सब तारतम्य जीवन का।।६५।।

कुछ बिखरीं कुछ कुम्हलाई,
मुख म्लान हुआ आधों का,
सुधिके अधीर झोकों में,
लुट गया बिपिन साधों का।।६६।।

निश्वासों से गति पाई,
घिर गये दृगों में आकर।
करूणा के बादल बरसे,
यौवन गिरि से टकराकर।।६७।।

जितनी विपदाएँ आई,
सब सहता रहा अकेले।
जीवन में पग रखते ही,
मैंने कितने दुख झेले।।६८।।

पोंछे कब किसने आँसू,
अपने अदोष अंचल से।
केवल प्रवंचना पाई,
उन मुसकानों के छल से।।६९।।

अब तो प्रतिपल पलकों को,
रहते हैं आँसू घेरे।
फिर ही न सके फिर वे दिन,
जबसे तुमने दृग फेरे।।७०।।

जबसे सौन्दयर् तुम्हारा,
मेरे नयनों से रूठा।
सुख की स्वतंत्र सत्ता का,
अभिमान हो गया झूठा।।७१।।

जिस दिन मन की लहरों ने,
निष्ठुरता के तट चूमें।
पलकों में जो सपने थे,
सब डूब गये आँसू में।।७२।।

जिन मुस्कानों पर रीझा,
उनसे न कभी फिर पाया।
सैंकड़ों बार धीरे से,
मैंने मन को समझाया।।७३।।

ठोकर सी लगी अचानक
अन्तर के आधारों को।
जब समझ न पाये तुम भी,
उन्मन, उन मनुहारों को।।७४।।

भयभीत हो उठीं साँसें,
मन का कण-कण थरार्या।
अपना सब कुछ देकर भी,
जब तिरस्कार ही पाया।।७५।।