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सागर के किनारे / नदी की बाँक पर छाया / अज्ञेय

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भीतर ही भीतर
तुम्हें पुकारता हूँ
बाहर पुकार नहीं सकता :
बन जाता है वही मेरा व्रत
जिस का मन्त्रित पाश
मैं उतार नहीं सकता!

सागर के किनारे खड़ा मैं
अपनी छोटी-सी नाव सँतारता हूँ!

पर लहर के साथ वह
लौट आती है। मैं जानता हूँ
कि सागर में नीचे कहीं
एक खींच होती है
जिस में पड़ कर फिर
नहीं होता लौट कर आना।

पर वह नाव को नहीं, नहीं, नहीं
मिलती-मैं मानता हूँ
कि डूब कर ही
होता है उसे पाना!

अभी मैं किनारे खड़ा
नाव सँतारता हूँ
साहस बटोरता हूँ
और दम साध
उस खींच को अगोरता हूँ-
आये, आये वह तन्मय क्षण
जब ओ छिपे स्रोत! तू मुझे धर ले-
मैं पाऊँ कि मैं अपने को वारता हूँ :
तारता हूँ...

नयी दिल्ली, 10 अगस्त, 1979