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साथ / मनोज कुमार झा

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क्या सच में ताक रही थी मुझको
चेहरा क्या उसी रंग में था
       उस दिन जब झाड़ी में छुप गई थी गिलहरी
पुतलियाँ क्या वैसे ही घूम रही थी
ढ़ूँढ़ती है जैसे गुब्बारे का मुँह

कोई खास बात नहीं
वैसे ही पूछ रहा था
बाहर बहुत तेज धूप थी
       घूम रहा था सिर
       समझो गिर ही पड़ा था सड़क पर
लिया एक फाँक तरबूज तो
बहुत याद आए तुम सब।