भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

साध पुरी, फिरी धुरी। / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

साध पुरी, फिरी धुरी।
छुटी गैल-छैल-छुरी।

अपने वश हैं सपने,
सुकर बने जो न बने,
सीधे हैं कड़े चने,
मिली एक एक कुरी।

सबकी आँखों उतरे
साख-साख से सुथरे,
सुए के हुए खुथरे
ऊपर से चली खुरी।

सजधजकर चले चले
भले-भले गले-गले
थे जो इकले-दुकले,
बातें थीं भली-बुरी।