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साल-दर-साल / अज्ञेय

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 पार साल बरसात में
ऊपर से नीचे तक चीरती
उस पर बिजली गिरी थी
पार साल बाँजों से फाँद कर
वनाग्नि नीचे से ऊपर तक
उस की डालें झुलसा गयी थीं।
इस साल वर्षा में
उसकी डालों से
काही झूल आयी है।
वनखंडी मानो पिछली घटनाएँ
सब भूल गयी।
आज उस की फुनगी पर
बैठा है पहाड़ी काक :
रुक-रुक करता गुहार।
कल उसे काट ले जाएँगे
लकड़हारों के कुल्हाड़े, बसूले, आरे।
अगले बरस फिर
कहीं किसी गाँठ में
दरार से एक नयी कोंपल
फूट आएगी जिस पर मँडराएगी
उतरेगी पिद्दी-सी फूलचुही :
प्यार से ज़िद्द करती गाएगी!

बिनसर, सितम्बर, 1976