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सावन-मेघ / अज्ञेय

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 (1)

घिर गया नभ, उमड़ आये मेघ काले,
भूमि के कम्पित उरोजों पर झुका-सा, विशद, श्वासाहत, चिरातुर
छा गया इन्द्र का नील वक्ष-वज्र-सा, यदपि तडि़त् से झुलसा हुआ-सा।
आह, मेरा श्वास है उत्तप्त-
धमनियों में उमड़ आयी है लहू की धार-
प्यार है अभिशप्त : तुम कहाँ हो, नारि?

(2)

मेघ-आकुल गगन को मैं देखता था, बन विरह के लक्षणों की मूर्ति-
सूक्ति की फिर नायिकाएँ, शास्त्र-संगत प्रेम-क्रीड़ाएँ,
घुमड़ती थीं बादलों में आद्र्र, कच्ची वासना के धूम-सी।
जब कि सहसा तडि़त् के आघात से घिर कर

फूट निकला स्वर्ग का आलोक। बाध्य देखा :
स्नेह से आलिप्त, बीज के भवितव्य से उत्फुल्ल,
बद्ध-वासना के पंक-सी फैली हुई थी
धारयित्री-सत्य-सी निर्लज्ज, नंगी, औ' समर्पित!

बड़ोदरा, 6 जुलाई, 1939