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सावन के गीत / बैद्यनाथ पाण्डेय 'कोमल'

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लहरल धरती आसमान में
अब सावन के गीत रे।
बदरी में कजरी के लहरा
उलटि पुलटि के आवे;
बूँदन के रिमझिम-रिमझिम रे
झमझम ताल बजावे;
ललचि-ललचि बिजुरी बदरा से
आज लगावत प्रीत रे।
उखिया के उमसल पतई रे
लेलस अब अंगड़ाई;
चमचम अँखिया से देखत नभ
फिर भादो कब आई;
जब फिर रंग चढ़ी धरती पर
बदली जग के रीत रे।
नेनुआ-कदुआ के लत्तर में
नया जवानी आइल;
इन अंखियन के रंग चुरा के
कठजामुन इठलाइल;
लौटल आपन देश जेठ अब
गइल लहर सब बीत रे।
रतिया के सुनसान पहर में
धरती नभ से बोले;
कहिया के तड़पल जियरा के
हुलसि-हुलसि के खोले;
हरदर हार रहल धरती के
अब बा जीते जीत रे।
लहरल धरती आसमान में
अब सावन के गीत रे।