भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सीढ़ियाँ / अज्ञेय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अम्बार है जूठी पत्तलों का : निश्चय ही पाहुने आये थे।
बिखरी पड़ी हैं डालियाँ-पत्तियाँ : किसी ने तोरण सजाये थे।

गली में मचा है कोहराम भारी : मुफ़्त का पैसा किसी ने पाया था।
उठती है आवाज तीखे क्रन्दन की : निश्चय ही कोई बहू लाया था।

दिल्ली, 27 अक्टूबर, 1954