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सीता: एक नारी / चतुर्थ सर्ग / पृष्ठ 7 / प्रताप नारायण सिंह

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मेरे हृदय में एक शंका तड़ित सी तत्क्षण झरी
है बात क्या, जो लखन जैसे वीर की आँखें भरीं
 
क्या भेद है इस मौन का, यह दुःख उन्हें किसने दिया
वह कौन सा है घात जिसने लखन को विचलित किया

कोई कहीं दुःख तो नहीं श्रीराम पर है आ पड़ा
या राज्य पर मंडरा रहा कोई कहीं संकट बड़ा

हिय में खड़े थे फन उठाए व्याल शंका के नए
पर मौन ही छाया रहा, हम पार गंगा कर गए

तट पर उतर सौमित्र के मुख ओर जब की दृष्टि थी
था म्लान मुख, अविरल दृगों से अश्रुजल की वृष्टि थी

मुख दीप्त रहता सूर्य सा, क्यों आज इतना क्लांत है
हैं उभर आये स्वेद कण औ’ कँपकँपाता गात है

अति दग्ध दिखता है हृदय, व्याकुल बहुत ही चित्त है
हा! रो रहे हैं लखन, यह पीड़ा नहीं अनिमित्त है

पड़ने लगा तन शिथिल, सब उत्साह था खोने लगा
अज्ञात भय से हृदय मेरा ग्रस्त था होने लगा

कुछ तो हुआ है घटित ऐसा ज्ञात जो मुझको नहीं
क्या नियति तो फिर से नहीं है जाल कोई बुन रही

हे लखन भ्राता! कुछ कहो क्यों हो व्यथित, क्या बात है
जो ध्वंस हिय का कर रहा वह कौन सा आघात है