सीता: एक नारी / तृतीय सर्ग / पृष्ठ 2 / प्रताप नारायण सिंह
चौदह बरस वनवास ने जो घाव थे मन पर दिए
प्रभु स्नेह वर्षा कर रहे उनको मिटाने के लिए
जिससे अयोध्या लौटने पर पूर्णतः मन स्वस्थ हो
वनवास के दुःख से न अंतःपुर अवध का ग्रस्त हो
पर उस समय अत्यन्त मैं आक्रांत थी निज शोक से
निष्प्राण, निश्चल और थी निर्लिप्त मैं इस लोक से
अज्ञात तो उनको न थी मेरी सघन संवेदना
हिय व्योम पर जो था प्रदाहित मेघ आच्छादित घना
करने लगे हरि जतन सब, मन वेदना से मुक्त हो
कोशल पहुँचने पर नवल आनंद से हिय युक्त हो
रमणीक आश्रम, वन, नगर, जो भी मिले थे राह में
हमने वहाँ विचरण किया नव अनुभवों की चाह में
जाते समय हम निर्वसित, पैदल तथा असहाय थे
कर प्राप्त लंका पर विजय अब शक्ति के पर्याय थे
संपन्न होकर थे चले नव तेज, बल, उल्लास से
आशीष पाकर ऋषिजनों का भर नए विश्वास से