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सीता: एक नारी / द्वितीय सर्ग / पृष्ठ 11 / प्रताप नारायण सिंह

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सीता, तुम्हारी पूज्य भाभी आस तुमसे खो रही
क्यों आज मर्यादा-पुरूष को सत्य समझाते नहीं

सौमित्र गुमसुम अनमने से मौन हो बैठे रहे
अतिशय व्यथित थे, पर समर्थन में नहीं कुछ भी कहे

मुझको लगा पैरों तले धरती खिसकती जा रही
आकाश में मैं झूलती अस्तित्व मेरा कुछ नहीं

जिस प्राण को मैं थी अभी तक यत्न से रोके रही
तत्काल ही तज गात मेरा चाहता जाना वही

थी मैं अभी तक जी रही बस राम की ही आस में
होगा मिलन उनसे कभी तो बस इसी विश्वास में

पर आज जब परित्याग ही मेरा उन्होंने कर दिया
मेरी सुकोमल कीर्ति पर है आज अपयश धर दिया

अब राह कोई भी नहीं मेरे लिए तो शेष है
करना वरण ही मृत्यु का अंतिम बचा उद्देश्य है

पर मृत्यु तो केवल मिटा सकती हमारे गात को
कैसे मिटेगा दाग, करता दग्ध मेरे माथ को

है मृत्यु तो उत्तर नही, यह है पलायन प्रश्न से
निर्दोषिता होगी प्रमाणित तो नहीं इस यत्न से

देनी मुझे होगी परीक्षा, पंक धोने के लिए
वर्चस्वता ने पुरुष के जो दाग माथे पर दिए