सीता: एक नारी / द्वितीय सर्ग / पृष्ठ 2 / प्रताप नारायण सिंह
होते हुए मैं बंदिनी, लंकेश को फटकारती
अपनी तपस्या-सिक्त वाणी से उसे धिक्कारती
दुर्दान्त को ललकारता सिय-सत्य बारम्बार था
भयभीत होना शक्ति से मुझको नहीं स्वीकार था
पर उन सभी घटनाक्रमों का ज्ञात है उत्तर नहीं
जो जुड़ गई हैं प्रश्न बनकर व्यक्ति से मेरे कहीं
था मर गया रावण मगर संतुष्टि थी मन में नहीं
कुछ घटित होने की कुशंका थी हृदय में पल रही
हिय-व्योम आच्छादित हुआ उद्विग्नता के मेघ से
अंधड़ कई चलने लगे थे द्वन्द के अति वेग से
संदेह से क्या मुक्त होगी पूर्णतः अब जानकी
क्या सोचती होगी प्रजा, क्या सोच होगी राम की
विश्वास पर सम्बन्ध जीवन के टिके होते सदा
विष घोलती शंका, हृदय को रुग्ण करती सर्वदा
क्या राम के मन में पुनः होगी वही आत्मीयता
विषधर सदृश यह प्रश्न बारम्बार था फुँफकारता
श्रीराम तो सर्वज्ञ हैं, पर दृष्टियाँ हिय बेधतीं
मुझ पर पड़ेंगी दूसरों की, व्यंग के शर फेंकती
बातें अयोध्या राज्य मे होंगी यही सर्वत्र ही-
"था हरण राक्षस ने किया सीता दशानन घर रही"