भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सीता: एक नारी / द्वितीय सर्ग / पृष्ठ 3 / प्रताप नारायण सिंह

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मानक चरित के हैं यहाँ पर भिन्न दोनों के लिए
स्वच्छंदता नर को मिली, बहु बंध नारी को दिए

होता पतित नर स्वेच्छया ही, वासना में डूबता
खोती विवश हो पुरूष बल से किन्तु नारी शुद्धता

होते हुए निर्दोष भी समझी गई दोषी यहाँ
नारी रही अधिनस्थ ही, व्यक्तित्व उसका है कहाँ

निज कर्म के ही साथ वह फल भोगती पर कर्म का
करता पुरूष दोहन सदा, ले आड़ धर्माधर्म का

था एक रावण मर चुका, पर दूसरे कितने खड़े
हैं रूढ़ियों के बंध नारी के लिए जग में बड़े

था नाश करके असुर का, मुझको छुड़ाया राम ने
क्या कट सकेगा लोकबंधन, है खड़ा जो सामने

था स्थूल मेरा मुक्त लेकिन सूक्ष्म बंधन-युक्त था
चिर-कालिमा से काल के कब भाग्य मेरा मुक्त था

शंका-कुशंका का हृदय में हो रहा संचार था
आए नहीं क्यों राम? चुभता प्रश्न बारम्बार था

श्रृंगार मेरा कर रही थीं नारियाँ अति नेह से
उठने लगी थी सुरभि नाना पुष्प रस की देह से

नव-वस्त्र औ’ स्वर्णादि से फिर गात को सज्जित किया
माला सुशोभित कंठ में, पग में महावर रच दिया