सीता: एक नारी / द्वितीय सर्ग / पृष्ठ 5 / प्रताप नारायण सिंह
सानिध्य ही जिनका, चरम सुख सर्वदा मेरे लिए
मैं साथ जिनके चल पड़ी थी, अवध तज वन के लिए
जिनके हृदय की प्रीति मैं, मन का अटल विश्वास थी
उस राम से ही मिलन की, मेरे हृदय में आस थी
जिनसे मिलन की आस में निज अश्रु को पीती रही
मैं शोक-वन में दुसह दुःख सहती हुयी जीती रही
जाने मुझे क्यों लग रहा था राम वे मुझसे कहीं-
हैं खो गए, सम्मुख खड़े यह राम तो हैं वे नहीं
पति का पराक्रम सहज ही होता विषय है हर्ष का
बनता मगर है प्रेम कारण, हर्ष के उत्कर्ष का
सम्मुख खड़ी मैं किन्तु ऐसा लग रहा अति दूर थी
गंभीर मुख उनका, तनिक आत्मीयता लक्षित न थी
अति शांत थी वह भीड़ भी निज साँस को रोके हुए
'क्या राम कहते हैं', सभी हिय मध्य उत्सुकता लिए
सब चाहते थे देखना विश्रान्त प्रभु के नयन में
आनंद होता प्रस्फुटित, निज प्रियतमा से मिलन में
उनके हृदय में मिलन का आनंद-जल था भर रहा
पर साथ में संताप, दुःख औ’ ग्लानि भी था झर रहा
नर-श्रेष्ठ का वह तेज अतुलित दीखता अति क्षीण था
प्रतिक्षण बदलते चेहरे पर भाव कोई स्थिर न था