सीता: एक नारी / द्वितीय सर्ग / पृष्ठ 8 / प्रताप नारायण सिंह
हर क्षण तुम्हारी खोज में औ' युद्ध के मैदान में
बनकर सदा तुम प्रेरिका थी विद्य मेरे प्रान में
यदि यह न होता तो कभी उत्साह रह पाता नहीं
तुमसे मिलन की आस मुझको प्रेरणा देती रही
मैं सोचता-रावण अधम मिल जाए यदि मुझको कहीं
सिर काट दस कन्दुक सदृश नभ में उछालूँ मैं वहीं
उसके करों को नोच दूँ, फिर वक्ष पर मैं पग धरूँ
अति रोष-पूरित रूद्र जैसे अनवरत ताण्डव करुँ
मारा गया दुर्दांत, थी उस अधम की परिणति वही
रघुकुल प्रतिष्ठा विषम-अति परिवेश में रक्षित रही
पर इस विजय के बाद भी, मन आज दुर्बल हो रहा
निस्सार सा लगता जगत, उत्साह सारा खो रहा
जिसके लिये भीषण हुआ रण, वह प्रिया है सामने
पर विवशता मेरी प्रबल, देती नहीं स्वीकारने
उसको करुँ अब पुनः अंगीकार मैं, साहस नहीं
सिय के बिना मेरे लिए जग में नहीं कुछ भी कहीं
शिव के धनुष को तोड़, मैंने प्राप्त था तुमको किया
मेरा सदा सुख और दुःख में साथ है तुमने दिया
फिर आज धनु ही प्राप्ति का साधन बना मेरे लिए
पर विवश हूँ विधि-हाथ मैं परित्याग करने के लिए