भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सीता: एक नारी / पंचम सर्ग / पृष्ठ 3 / प्रताप नारायण सिंह

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

लेकिन नहीं स्वच्छन्द मैं हूँ आज मरने के लिए
जीना पड़ेगा, गर्भ में जो पल रहा उसके लिए

जीती रही है माँ यहाँ संतान के आभास से
उत्पन्न करती है उसे अपने हृदय की प्यास से

बनना पिता इस जगत में आमोद का बस वरण है
माँ के लिए तो किन्तु यह अस्तित्व-स्थानांतरण है

सह कर असह्य पीड़ा सदा देती जनम संतान को
रक्षार्थ उसके वार देती गात औ’ निज प्रान को

निज दुग्ध से है पालती, वह सींचती है अश्रु से
जीवन मरण का प्रश्न भी करता नहीं विचलित उसे

मातृत्व की उत्कट सदा नारी हृदय में कामना
बस हेतु संतति ही सदा करती सकल वह साधना

होता पुरुष भी है दुखी उसको न हो संतान जो
पर मीन सी नारी तड़पती बन सके माता न जो

सौंदर्य सारा नारि का संतान के आधान से
रहता सुवासित वाह्य-अंतर गर्भ के उद्यान से

मुख दीप्त रहता सतत नव अनुभूति के आलोक से
आभा उतर आती दृगों में दिव्य ज्यों परलोक से

बन रक्त बहती है रगों में, धड़कती वह प्रान में
विस्तार लेता सूक्ष्म उसका एक नव परिधान में

जननी रही रत हेतु संतति के सकल उत्थान के
है डोर नैसर्गिक जगत में मध्य माँ-संतान के

निज प्राण से भी अधिक वह संतान को है चाहती
हर कष्ट उसका ईश से अपने लिए है माँगती