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सीता: एक नारी / प्रथम सर्ग / पृष्ठ 3 / प्रताप नारायण सिंह

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फिर से विवश विधि हाथ मैं, कितना प्रबल दुर्भाग्य है
अर्धांगिनी अवधेश की, वनवास को फिर बाध्य है

हा! काल छलना बन गया है आज फिर मेरे लिए
उर बिद्ध करते दंश कोटिक बिच्छुओं के नित नए

सहती रहूँगी दंड कब तक , स्वर्ण मृग के लोभ का
मृग-चर्म ही कारण बना है, आज इस दुःख भोग का

सुंदर सुघड़ अपनी गृहस्थी, बस यही थी कामना
मृग चर्म के प्रति लोभ का मेरे, यही कारण बना

हैं आज भी चलचित्र से वे पल दृगों के सामने
आश्रम बनाया था सघन दण्डक-विपिन में राम ने

पावन मनोरम स्थान वह था प्रकृति सुषमा से भरा
आवास को उपयुक्त उससे वन नहीं था दूसरा

श्रीराम, लक्ष्मण संग मैं सुख शांति से थी रह रही
पर एक पल में छिन गया सब, शेष फिर कुछ भी नहीं

मन गत दिनों के कुछ अप्रिय घटनाक्रमों से खिन्न था
अनुभव नया, अब तक हुए सब अनुभवों से भिन्न था