सीता: एक नारी / प्रथम सर्ग / पृष्ठ 5 / प्रताप नारायण सिंह
भय का तिमिर जो था घिरा, तत्क्षण उसे प्रभु ने हरा
उन सा धनुर्धारी कहाँ त्रैलोक्य में है दूसरा
सानिध्य में प्रभु राम के भय ठहरता पल भर नहीं
फिर भी लहू की कालिमा थी खिन्न मन को कर रही
अनभिज्ञ बिल्कुल भी नहीं श्रीराम थे इस बात से
करने लगे थे जतन, होऊँ मुक्त मैं आघात से
आकर निकट मुख म्लान मेरा स्निग्ध अंजलि में लिया
कुम्हला गए मृदु जलज को ज्यों सुधा से सिंचित किया
छूने लगी थी दृष्टि उनकी चक्षुओं को नेह से
अभिसिक्त हिय होने लगा मधु के निरंतर मेह से
बातें जनकपुर वाटिका की औ' प्रथम एकांत की
पहले मिलन पर उल्लसित, सकुचित हुए उर-प्रान्त की
अत्यन्त प्रियकर मधुर वचनों से हृदय को खोलते
अति प्रेम पूरित शब्द कानो में शहद से घोलते
नव प्रेमियों सा वे प्रशंसा रूप की करने लगे
उपमान लेकर प्रकृति से सम्मुख कई धरने लगे