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सुतवती सीता / ‘हरिऔध’

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कुसुम सु कोमल अल्प-वयस दो बालकवाली।
रहित केश-विन्यास प्रकृति-पावन कर पाली।
एक आधा गहने पहने साधारण-वसना।
मुख-गंभीरत नहिं जिसकी कह सकती रसना।
यह देवि स्वरूपा कौन है बन-भूतल में भ्राजती?
कुसुमित पौधों के मधय में क्या है रमा बिराजती?।1।

वन निवास के समय बहु विटप निम्न निरन्तर।
जो अवलोकी गयी पति प्रणयरता प्रचुर तर।
तरु-अशोक के तले पुरी लंका में प्रतिपल।
जिसका विकसित हुआ अलौकिक चारु चरितबल।
उस तपो भूमि में, जहाँ से रामचरित-धारा बही।
यह उसी सती की अति रुचिर मातृ-मूर्ति है लस रही।2।

निकट विलसते लव कुश नामक युगल तनय हैं।
भोले भाले परम सरलता-निधि मुदमय हैं।
पति-वियोग-विधुरा व्यथिता के प्रिय सम्बल हैं।
दुख-पयोधि में विवश पतित के पोत युगल हैं।
परितापवंत चित सुतरुहित युग कलसे हैं सलिल मय।
तम वलित उर सदन के ज्योति मान हैं दीप द्वय।3।

अग्रज को अवलोक लिये एक कुसुम मनोहर।
फिर करते आलाप देख जननी से प्रिय तर।
हुआ कुसुम के लिए द्वितीय बालक भी चंचल।
औ जा बैठा पुष्प बेलि ढिग मंद मंद चल।
प्रिय सुमन तोड़ने के समय जो सुषमा मुख पर लसी।
वह अति अनुपम है प्रात रविप्रभा कमलपर आ बसी।4।

कुसुम लाभ, उसके अवलोकन का विनोद मिल।
अति सुन्दरता संग उठा है आनन पर खिल।
क्या राका-पति अंक विकचता उफन पड़ी है।
अथवा खिले गुलाब में सरसता उमड़ी है।
नन्दन कानन के अति कलित विकसित किसी प्रसून पर।
अथवा अनुपमता सँग लसी स्वर्ग ज्योति कमनीय तर।5।

सम्मुख पाकर कुसुम वान बालक को सीता।
हस्त कमल के साथ उसे पकड़े हो प्रीता।
जिस रसालता मृदुता सँग हैं समालाप-रत।
हो सकता है वह भावुक जन को ही अवगत।
अवलोक बदन गम्भीरता उठी तर्जनी कलामय।
कलनीय कान्त भावों बलित नहीं होता किसका हृदय।6।

माता है मानव-जीवन की नींव जमाती।
उसे पूत उन्नत, उदार है वही बनाती।
ज्यों सोनार भूषण-स्वरूप का है निर्माता।
त्योंही है माता-विचार जन-हृदय-विधाता।
बालक उर मृदु महि मधय जो मा बोती है बीज चय।
फल बहु बिधिा लाता है वही हो अंकुरित यथा समय।7।

सिय मुख पर कत्ताव्य बुध्दि यह बहु व्यंजित है।
उससे उसकी गुरु गँभीरता अति रंजित है।
जो प्रसून उनका बालक है उन्हें दिखाता।
मंजुल वचन वही उनके मुख पर है लाता।
वे जिस वत्सलता, सरसता से हैं बातें कह रहीं।
वह केवल अनुभवनीय है सुकथनीय कथमपि नहीं।8।

क्या वह यह कहती हैं ऐ उर-उदधि-कलाधार।
तेरे जैसा ही प्रसून भी है अति सुन्दर।
प्राणि-नयन-रंजिनी परम न्यारी छबि वाली।
तव कपोल अधरों सी है इसकी भी लाली।
कोमलता इस पर वैसिही है लसती मन मोहती।
तेरे तन की सुकुमारता जैसी हूँ अवलोकती।9।

है समानता तुझमें और सुमन में इतनी।
किन्तु तात इसमें गुण गरिमाएँ हैं कितनी।
बहुत प्यार कर सुर शिर पर सानंद चढ़ावे।
या पाँवों से मसल धूल में इसे मिलावे।
पर यह सुबास तजता नहीं यों रहता है एक रस।
कैसे ही उनमें बिरसता नहिं होती जो हैं सरस।10।

यह सुरभित केवल तिल ही को नहीं बनाता।
निज सुगंधि दे रज का भी है मान बढ़ाता।
निज प्रफुल्लता से नर ही को नहिं पुलकाता।
बनता है बहु मधुप कीट का भी सुख-दाता।
जो हैं जग में सच्चे सुमन क्या कह उन्हें सराहिए।
उनकी गुणमयता विकचता होती है सब के लिए।11।

यह प्रसून काँटों में ही रहता पलता है।
पर कैसी इसमें सुमधुरता कोमलता है।
पड़ कुसंग में कभी नहीं वे निजता खोते।
जो भावुक गंभीर उच्च रुचि के हैं होते।
जैसे समीप की पवन को यह करता है परिमलित।
वैसे उनका सहवास भी होता है बहु गुण-वलित।12।

अल्प मोल का फूल, मुकुटमणि का है मण्डन।
मोहित होता है उस पर पृथ्वी-पति का मन।
अमर-वृन्द-मस्तक पर है वह शोभा पाता।
वह सुवर्ण भूषण को भी है सछबि बनाता।
क्यों! क्या यह बतला दूँ तुझे? सुन ऐ सुवन सुकौशली।
सब काल रही सम्मानिता बसुधा-बीच गुणावली।13।

जितनी वस्तु अवनि-मण्डल में है दिखलाती।
उन सबको मैं बिबिध गुणों-पूरित हूँ पाती।
सुवन सभी को तुम विचार दृग से बिलोक कर।
उनके गुण-गण गहो, बनो कुल-कुमुद कलाधार।
कर-पल्लव शोभित कुसुम के सकल सुगुण पहले गहो।
जिससे इनकी अवहेलना देवोपम शिशु से न हो।14।

मेरे जी में यही लालसा है ऐ प्यारे!
तेरे पिता-सदृश तेरे गुण होवें न्यारे।
प्रजा-पुंज-रंजन सुनीति तेरी हो वैसी।
पूत-चरित-रघुकुल-रवि की भू में है जैसी।
सब काल सत्य संकल्प, सत्कर्म-निरत संयत रहो।
निज पूज्य जनक के तुल्य तब जीवन रहित कलंक हो।15।