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सुधा भी पी नहीं जाती / शब्द के संचरण में / रामस्वरूप 'सिन्दूर'

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आज को मैंने जिया कल कि प्रतीक्षा में!
एक छल है, दूसरे छल की प्रतीक्षा में!

बह गयी आकाशगंगा में करुण-गाथा,
गा रहा मैं अरुण छंदों में, वरुण-गाथा,
ये नयन हैं, कौन-से जल की प्रतीक्षा में!
एक छल है, दूसरे छल की प्रतीक्षा में!

आँसुओं का अतल मन्थन कर चुका हूँ मैं,
रत्न-कोषों को अमृत से भर चुका हूँ मैं,
कल्पतरु भी है, किसी फल की प्रतीक्षा में!
एक छल है, दूसरे छल की प्रतीक्षा में!

अब तृषा को तृप्ति की सुधि भी नहीं आती,
वारुणी तो क्या सुधा भी पी नहीं जाती,
चल-अचल पल हैं, सकल-पल कि प्रतीक्षा में!
एक छल है, दूसरे छल की प्रतीक्षा में!