भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सुधि उमड़ती रहे बदलियों की तरह / प्रेम नारायण 'पंकिल'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 

सुधि उमड़ती रहे बदलियों की तरह ।
तुम झलकते रहो बिजलियों की तरह।।

प्रभु हृदय में मेरे तुमको होगी घुटन
मैने गंदा किया सारा वातावरण
ऐसे हिय में बिरह की सलाई लगा
प्राण सुलगें अगरबत्तियों की तरह ।।1।।

दृष्टि बस फेर दो कष्ट कट जायेगा
कुछ तेरा सच्चे बाबा न घट जायेगा
उर की क्यारी में भगवन खिलो बन सुमन
मन मचलने लगे तितलियों की तरह ।।2।।

मैं हूँ दुनिया का सबसे बुरा आदमी
बोझ ढ़ोने में यदि चाहते हो कमी
मेरा अपराध-तरु झोर दो झर पड़ें
पाप सूखी हुई पत्तियों की तरह ।।3।।

तेरी सुधि से बिलग मत रहे एक क्षण
मेरी हर श्वांस, हर रोम, हर रक्त-कण
अपनी चुटकी का बल आप देते रहें
मै थिरकता रहूँ तकलियों की तरह ।।4।।

सोचते कौन तुम मेरी नेकी - बदी
ताल ‘पंकिल’ हूँ मैं तुम हो गंगा नदी
प्रेम चारा चुँगाते चलो चाव से
मैं निगलता चलूँ मछलियों की तरह ।।5।।