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सुनो,आज कह दूँ क्या / शशांक मिश्रा 'सफ़ीर'

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सुनो, आज कह दूँ क्या?
जो कभी नहीं कहा।
कई दफा सोचा कि कह दूँ।
पर पास आते ही, तुम्हारी लटों में
उलझ जाते थे मेरे शब्द।
कश्मकश ये कि उलझे शब्दों में कैसे कहूँ?
बेचैनी ये कि बिन कहे कैसे रहूँ?
चलो आज बोल ही देता हूँ।
कुछ राज है जो खोल देता हूँ।
लेकिन शुरुआत कहाँ से हो?
तुम्हारी शफ़क़ होंठों से या,
तुम्हें न छुपाने की कसक से?
या आदि से कहूँ मैं
और कह दूँ अंत तक।
फिर सोचता हूँ कि तय करूं,
तुम्हारा आदि और अंत।
तुम्हारी बातों का, तुम्हारी यादों का आदि और अंत।
अफसोस कि ना बांध सका तुम्हें,
आदि और अंत के बंधन में।
जानता हूँ कि न बांध पाऊंगा तुम्हें सीमाओं में।
ना ही कह पाऊँगा जो कभी नहीं कहा।