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सुर्खी लहठी-भरे हाथ / राजेन्द्र प्रसाद सिंह

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सुर्खी लहठी-भरे हाथ
(दीवाली-गीत)

सुर्खी लहठी-भरे हाथ ये
दिये जलाते हैं,
उनसे सुबह न भेंट,
काम पर निकल गए जो;
शाम हुई, तब लेते आये जिनिस परब के;
खाने भी आये न, दोपहार भुगत चले जो,
कैसे घर लीपा, फिर चौक पूरायह,
-वे क्या जानें?

कबके बचे-जुगोये छुट्टे
तेल पुरते हैं,

पोत सफेदी अथक
कोठरी पर काजल की;
घर लौटे लेकर दो बच्चोंकी दो गंजी;
चढ़ा चटक सतरंग, क्रूर कोठी पर छल की,
कैसे मकई खिल-खांड में बदली,
वे क्या जानें?

आँचल फाड़ बनाये बतिहर
जोत जगाते हैं,

सेंतमेंत में मांग चार
कदली- थम गाड़े;
लछमी-मूरत नहीं, यहीं औजार टंगेंगे;
उड़ें पटाखे कहीं,-बजेंगे यहाँ नगाड़े,
उछल पेट की आग मशाल चढ़ेंगा,
-कब क्या जानें?
लोग लुकाठी अभी भाँजते
या सुलगाते हैं