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सुविधा की बीन / शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान

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तन शहरी
मन हुये जंगली
आंखों पर चश्में रंगीन
हवन जिन्हें करना था वो भी
बजा रहे सुविधा की बीन
दोष नहीं था आंखों का पर
पतझड़ हुये बसंती सपने,
वे बो गये राह में कांटे
समझा किया जिन्हें हम अपने
मुंह से शिव शिव बोल रहे पर
हाथों में पकडे़ संगीन
परखा जिन्हें मिले वो खोटे
चमकदार कहने भर को थे,
देख न पाये शकल स्वयं की
हाथ थमे दर्पण यू तो थे,
आग लगा बैठे घर अपने
मति ले गया विधाता छीन
थे तो वे नीयति के खोटे
पर था राजयोग हाथों में,
कहने भर को थे दधीचि पर
स्वार्थ भरा था जजबातों में,
ऊंची ड्योढ़ी, घर कुबेर का
अनगिन द्वार खडे थे दीन