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सूखा रंग / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

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लाल-लाल कोंपल से तरुवर वैसे ही होते हैं लाल;
ललित विविध सुमनों से सज्जित वैसी ही होती है डाल।
पावक-सम अरुणाभ फूल से बनते हैं कमनीय अनार;
वैसे ही लोहित कुसुमों से विलसित होता है कचनार।
सेमल वैसे ही लसते हैं, वैसे ही हैं ललित पलास;
वैसे ही पल्लव-कुल में है लोक-लालिमा मंजु विलास।
किंतु होलिके! तब मुख-लाली अब वैसी है नहीं रसाले;
वह गुलाल का चाव नहीं है, गाल है न वैसा ही लाल।
रंग-भरी तू है न दिखाती, है न अबीर-भरी तू आज;
पहले-जैसा है न दिखाता लाल रंग में डूबा साज।
है न गगन-तल रंजित होता, हैं न खेलते तारक फाग;
अवनी-तल का सारा रज-कण बना न मूर्तिमान अनुराग।
क्या है कोई हृदय-वेदना किंवा कोई अंतर्दाह;
अथवा म्लान तुझे करता है क्रूर काल प्रतिकूल प्रवाह।
क्या भारत में अब न कभी आवेगा वह अति मंजुल वार;
जिस दिन तेरा विभव पूर्ववत दिखलावेगा लसित अपार।