भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सोचता हूँ / शशिप्रकाश

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कभी-कभी ऐसा भी होता है कि
सोचता हूँ एक अहमक की तरह कि
तब भी क्यों धड़कता है दिल
जब इसपर तुम्हारा सिर नहीं टिका होता I

उँगलियों में हरक़त
उस समय भी क्यों होती है
जब ये तुम्हारे बालों में
नहीं फिरा करतीं I

आँखें शून्य में क्यों घूरती हैं एकटक,
जब वहाँ नहीं भी होती हैं
दुनिया की सबसे सुन्दर आँखें !

इसलिए, शायद इसलिए कि
अभी और भी सुन्दर होना है
इस ज़िन्दगी को
और भी अधिक प्यार से भरी हुई,
दुनिया की तमाम बदसूरती और नफ़रत को
चुनौती देती हुई I

और सोचता हूँ, इस सुन्दर चाहत का,
इस अमिट प्यास का बने रहना ही
प्यार की बुनियादी शर्त है और
जीवन के पुनर्नवा होते रहने की भी I

यही तो वह प्यार है
जिसके लिए हम जीते हैं, लड़ते हैं,
लगा देते हैं
पूरी ज़िन्दगी दाँव पर
और जिसकी सबके लिए कामना करते हैं
दिल की पूरी गहराई से !